एक बच्ची की मार्मिक दास्तां
दीपावली के समय किन्नरों की टोली आई थी... नाचने..... वे तो हर तीज-त्यौहार पर यूं ही आते हैं और पैसे लेते हैं। मैं भी देता हूँ..... पर बात भी करता हूँ, 'कैसे हैं आप... सच जाने वो बिहल हो जाते हैं..... ऐसी बात करने के दौरान एक नव किन्नर ने बताया था कि कैसे उसे आठ साल की उम्र में घर से धक्के मारकर निकाल दिया गया था.... यह कितना रोई थी.... पर अब नहीं रोती.... भगवान ने मुझे दूसरों को दुआएं देने के लिए ही जन्म दिया है..... हम दुखों में जीते हए दूसरों को सुख में जीने की दुआ देते हैं...। बात गहरी थी मेरे अंतर्मन तक चली गई थी। मुझे लगा कि मेरा इतना सारा लेखन उसकी एक बात में निरर्थक हो गया है। बहुत दिनों तक अंदर बहुत कुछ घुमड़ता रहा.... फिर एक दिन एक कहानी लिखी इसी नाम से। कहानी लिखने के बाद भी मुझे लगा कि मैं अभी वो पूरी पीड़ा को अभिव्यक्त नहीं कर पाया हूँ जिस पीड़ा में दूसरों को सुखी रहने का आशीर्वाद देने वाले किन्नर जीते हैं। दर्द को अभिव्यक्त होना चाहिए........ तो लम्बी कहानी लिखना प्रारंभ किया...