Seva
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चन्दन कुछ भेद न समझते हुए भी मनमलीन हो गया | घंटी फिर बजी | ट्रे वहीं रखकर चन्दन चला गया | रंजना जीने से नीचे उतर आयी | मैनेज़र साहब काउंटेर पर खड़े होकर सिगरेट का दम खीच रहे थे | रंजना को आते देख रेल के ईन्जन के माफिक धुआं छोडते हुए उत्सुकता से पूछा | “कहिये मुलाकात हुई विजय बाबू से” रंजना काऊंटर के पास आकर रुक गयी | “जी नहीं वो यहां नहीं है | कल से उनकी तबियत खराब है | वह मेरे ही घर ठहरे है | मै उनका सामान लेने आयी थी | यह उनके कमरे की चाबी है | रंजना ने पर्स से निकालकर चाबी मैनेजर के हाथ मे दे दी | शंका की कोई जगह न थी फिर भी मैनेज़र पूछ ही उठा “ जी आप “ “ मै उनके दूर के रिश्ते से ” वह क़ल से ही मेरे ही वहां है | होटल का बिल तैयार होते -होते छोकरा कमरे से सामान नीचे ले आया था | सामान था ही क्या | “ एक सूटकेस और एक बिस्तरबन्द | नीचे तांगे पर सामान लाद दिया गया | बिल बन चुका था | रंजना पैसे चुकाकर चलने लगी | मैनेज़र ने पैसेन्जर बोर्ड से विजय बाबू का कार्ड निकाला और फाड़कर मेज के नीचे टोकरी मे फेंक दिया | रंजना को मैनेज़र के इस बर्ताव से ताज्जुब और दुख दोनो हुआ | सच है | बाजारू औरत के कमरे और होटल मे थोड़ा ही फर्क है | मुसफिर को पैसे दोनो ही चुकाने पड़ते है कहीं ठहरने से पहले कहीं ठहरने के बाद | होटल से बाहर तांगे पर आकर रंजना बैठ गयी | तांगा चल पड़ा | दोपहर होते - होते रंजना अपने घर पहुँच गयी | सोना का चुल्हा ठंडा पडा था | एक कोने मे बैठी धूप मे पडोसिंन से जूएं दिखवा रही थी | रंजना को आते देख कहां से आयी पूछने का साहस नहीं हुआ | रंजना परदेसी के कमरे मे चली गयी | फ़कीरा सिरहाने बैठा हल्के - हल्के उसका सिर दबा रहा था | रंजना को आते देख कुर्सी से उठ खड़ा हुआ “ आ गयी बीबी जी “ “ हाँ ! यह ले चाबी ! नीचे तांगे से सामान लाकर मेरे कमरे मे रख दे और यह ले एक रूपया तांगे वाले को दे दिजियो | फ़कीरा रूपया और चाबी लेकर चला गया | रंजना ने कमरे की खिडकी खोली | बाजार मे चहल - पहल अच्छी थी | सामने बाजार मे लोहे वाले की दुकान मे बिसाती ने रंग - बिरंगी राखियां फैला राखी थी | लाल , हरी , नीली , पीली सभी रंग की और गोटे वाली भी | रंजना के कानो मे चन्दन के वही शब्द गूंज उठे “ वही विजय बाबू जो लखनऊ से आये है | आई | ए | एस | की परीक्षा के लिये | यह राखी तो मेरी दीदी ने बांधी है | आपने भी तो अपने भाई को बांधी होगी | राखी वाला बरा बर आवाज लगा रहा था | राखी एक एक आने की | भाई बहन का नाता सिर्फ एक एक आने मे “ रंजना को राखी वाले की आवाज पर कुछ हंसी भी आ गयी | कितना सस्ता समझता है भाई - बहन के रिश्ते को , एक बार परदेसी की ओर देखा | काश ! उसका भी कोई भाई होता ज़िसे वो भैया कहती | फ़कीरा सामान कमरे मे रखकर चुल्हा गरम करने लगा पर बनवे क्या ये पूछने के लिये बीबी जी के पास गया | खिडकी के सहारे बाजार की ओर मुंह करके रंजना खडी थी | आँखे नम थी | पैरो की आहट सुनकर रंजना ने आँचल से आंसू पोंछ डाले | “ क्या है रे फ़कीरा “ “ कुछ नहीं बीबी जी | यह पूछ रहा था कि क्या बनाऊँ “ “ तू जो चाहे बना ले | मुझे तो भूख नहीं है | “ तो मै अकेले पेट को क्या बनाऊंगा | शाम को देखा ज़ायेगा | रंजना को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसी के कारण फ़कीरा भी दिनभर भूखा रहेगा | कल भी बेचारे ने नहीं खाया था | पकी - पकाई थाली परोस कर बैठा ही था कि सोना जूते समेत चौके में चली गई | वैसी की वैसी थाली फ़कीरा ने सरका दी | ठाकुर है ना जात का छुआछूत कैसे खा लेता बेचारा एक प्याली चाय पी कर रह गया | और आज भी ध्यान आते ही विचार पलट गया | “फ़कीरा खाना जो मन में आये बना ले मै भी थोड़ा खा लूँगी | आज रक्षाबन्धन है ना , ज़ा बाजार से थोड़ा दूध लाकर खीर बना ले और देख थोड़ा दूध रख दिजियो शायद परदेसी को होश आ जाये तो | बेचारे के पेट मै क़ल से कुछ नहीं गया है | कहते कहते रंजना की आँखे फिर भर आयीं | फ़कीरा आश्वासन देने लगा |