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Pratyancha प्रत्यंचा
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Pratyancha प्रत्यंचा

By: ANURADHA PRAKASHAN (??????? ??????? ?????? )
150.00

Single Issue

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About this issue

उर्वरक उलझाव के मध्य सरिसृप की भांति सरकती हुई जिन्दगी, कभी निस्पंद, निस्पृत होती उपेक्षणीय हो जाती है, तो कभी आह्वलादित, अनुकंपित, अनन्य आलाप गुनगुनाती अनुकरणीय; तब हृदय के प्रकोण्ठ में हिलकोर मारती तरंगें, अनेक गूढ़ रहस्यों को सहज संभाव्य करने के लिए उद्वेलित लगती है, वहीं प्रस्फुटित होती हैं, भावनाएं। आदिकाल से जिन्दगी की प्रतिप्रभा का अवलोकन कृतियों के माध्यम से उद्भासित होता चला आ रहा है। प्रश्न-प्रतिप्रश्नों से जूझते, वायु के प्रतिकूल दिशा में गमन करते, गतिमान जीवन के विविध चरणों में, विविध वय और विविध मनःस्थितियों में, देश और विदेश में, लिखी गई काव्यमय ध्वनि जो मेरे हृदयपटल पर, सदा-सर्वदा, अहर्निश प्रतिध्वनित होती रही थी, उन्हीं में से कुछ शब्दों की यात्रा यहाँ प्रस्तुत है।
इसे पुस्तक रूप देने के लिए मेरे पति श्री प्रभात कुमार झा और बच्चों बेटा नीलोत्पल, बेटी नयनसी, जामाता धीरज की असीम उत्साह और प्रेरणा ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसके लिए उनका आभार ।
सौभाग्य मानती हूँ मैं इसे अपना कि इस पुस्तक को मैंने अपनी माताजी को जो खुद संस्कृत साहित्य की विदूषी थीं, समर्पित किया है, (प्रथम पुस्तक श्रद्धेय पिता डा. शिव कुमार झा जी के चरण कमलों में समर्पित है) उसके लिए दो शब्द (पुरोवाक्) लिखने का दायित्व, कुछ अनुनय-विनय के साथ, अपने व्यस्ततम समय से चंद लम्हें निकालकर मातृस्वरूप हमारी अग्रजा, जो स्वयं एक तेजस्विनी लेखिका और कवयित्री, संगीतज्ञ के साथ-साथ इतिहासज्ञ भी हैं, ने स्वीकार कर हमें अपने आशीर्वचन से अनुग्रहित किया। हम इसके लिए तहेदिल से उनका आभार प्रकट करते हैं।
मैं अपने प्रकाशक श्री मनमोहन शर्मा जी का आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने बड़ी तत्परता, मुस्तैदी और गंभीरता से इसे प्रकाशित किया है।
अन्त में, मैं आप सब पाठकों की भी आभारी हूँ, जिनके सतत प्रोत्साहन से जो भी जैसा भी मैं लिखती रही रूकी, झुकी, थमी, लेकिन कभी सूखी नहीं मेरी कलम और हृदय की सियाही।

About Pratyancha प्रत्यंचा

उर्वरक उलझाव के मध्य सरिसृप की भांति सरकती हुई जिन्दगी, कभी निस्पंद, निस्पृत होती उपेक्षणीय हो जाती है, तो कभी आह्वलादित, अनुकंपित, अनन्य आलाप गुनगुनाती अनुकरणीय; तब हृदय के प्रकोण्ठ में हिलकोर मारती तरंगें, अनेक गूढ़ रहस्यों को सहज संभाव्य करने के लिए उद्वेलित लगती है, वहीं प्रस्फुटित होती हैं, भावनाएं। आदिकाल से जिन्दगी की प्रतिप्रभा का अवलोकन कृतियों के माध्यम से उद्भासित होता चला आ रहा है। प्रश्न-प्रतिप्रश्नों से जूझते, वायु के प्रतिकूल दिशा में गमन करते, गतिमान जीवन के विविध चरणों में, विविध वय और विविध मनःस्थितियों में, देश और विदेश में, लिखी गई काव्यमय ध्वनि जो मेरे हृदयपटल पर, सदा-सर्वदा, अहर्निश प्रतिध्वनित होती रही थी, उन्हीं में से कुछ शब्दों की यात्रा यहाँ प्रस्तुत है।
इसे पुस्तक रूप देने के लिए मेरे पति श्री प्रभात कुमार झा और बच्चों बेटा नीलोत्पल, बेटी नयनसी, जामाता धीरज की असीम उत्साह और प्रेरणा ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसके लिए उनका आभार ।
सौभाग्य मानती हूँ मैं इसे अपना कि इस पुस्तक को मैंने अपनी माताजी को जो खुद संस्कृत साहित्य की विदूषी थीं, समर्पित किया है, (प्रथम पुस्तक श्रद्धेय पिता डा. शिव कुमार झा जी के चरण कमलों में समर्पित है) उसके लिए दो शब्द (पुरोवाक्) लिखने का दायित्व, कुछ अनुनय-विनय के साथ, अपने व्यस्ततम समय से चंद लम्हें निकालकर मातृस्वरूप हमारी अग्रजा, जो स्वयं एक तेजस्विनी लेखिका और कवयित्री, संगीतज्ञ के साथ-साथ इतिहासज्ञ भी हैं, ने स्वीकार कर हमें अपने आशीर्वचन से अनुग्रहित किया। हम इसके लिए तहेदिल से उनका आभार प्रकट करते हैं।
मैं अपने प्रकाशक श्री मनमोहन शर्मा जी का आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने बड़ी तत्परता, मुस्तैदी और गंभीरता से इसे प्रकाशित किया है।
अन्त में, मैं आप सब पाठकों की भी आभारी हूँ, जिनके सतत प्रोत्साहन से जो भी जैसा भी मैं लिखती रही रूकी, झुकी, थमी, लेकिन कभी सूखी नहीं मेरी कलम और हृदय की सियाही।