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Satya Sanatan
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Satya Sanatan "Mamekam Sharanam Varj" सत्य सनातन "मामेकं शरणं व्रज"

By: ANURADHA PRAKASHAN (??????? ??????? ?????? )
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About this issue

बिहार विभूति आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा जी ने साहित्य की कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है पर उनकी विशिष्ट पहचान एक निबंधकार, एक ललित निबंधकार के रूप में होती है। ललित निबंध लेखन की एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से लेखक स्वयं अपने को ही अभिव्यक्त करता है। इसके माध्यम से लेखक अपने निजीपन, अपने 'स्व' को प्रकट करता है। ऐसे लेखन का विषय कुछ भी हो मगर विषय तो एक निमित्त मात्र होता है, साधन मात्र होता है, यानी निबंधकार के व्यक्तित्व को प्रकट करने का एक उपादान, एक माध्यम। निबंध और निबंधकार का यह साहचर्य आचार्य ओझा जी के ललित निबंधों में पूरे यौवन, पूरी ऊर्जा, पूरी क्षमता के साथ गुंजरित होता दिखाई देता है।
आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा अपनी पुस्तक 'नैवेद्यम्' में स्वयं भी तो कहते है, "ये निबंध निबंध तो हैं ही, मेरी आत्मकथा भी हैं, मेरी जीवनी, मेरा जीवनवृत्त भी । ....... ये मेरे असली पहचान पत्र हैं - real identity card, मेरा सब-कुछ ये निबंध ही हैं यानी मैं ही सब निबंध हूँ और सब निबंध मैं ही हूँ I am the essays and the essays are I. यानी रवीन्द्रनाथ और ये निबंध एक दूसरे के पर्याय हैं, एक दूसरे के स्थानापन्न (substitute) हैं। दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। दोनों को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। दोनों अद्वय हैं, एक हैं, अभिन्न हैं, अविनाभावी हैं। और सृजनकार की सफलता इसमें ही है कि रचना और रचनाकार का भेद मिट जाय। रचनाकार रचना हो जाय और रचना रचनाकार ।"

About Satya Sanatan "Mamekam Sharanam Varj" सत्य सनातन "मामेकं शरणं व्रज"

बिहार विभूति आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा जी ने साहित्य की कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है पर उनकी विशिष्ट पहचान एक निबंधकार, एक ललित निबंधकार के रूप में होती है। ललित निबंध लेखन की एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से लेखक स्वयं अपने को ही अभिव्यक्त करता है। इसके माध्यम से लेखक अपने निजीपन, अपने 'स्व' को प्रकट करता है। ऐसे लेखन का विषय कुछ भी हो मगर विषय तो एक निमित्त मात्र होता है, साधन मात्र होता है, यानी निबंधकार के व्यक्तित्व को प्रकट करने का एक उपादान, एक माध्यम। निबंध और निबंधकार का यह साहचर्य आचार्य ओझा जी के ललित निबंधों में पूरे यौवन, पूरी ऊर्जा, पूरी क्षमता के साथ गुंजरित होता दिखाई देता है।
आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा अपनी पुस्तक 'नैवेद्यम्' में स्वयं भी तो कहते है, "ये निबंध निबंध तो हैं ही, मेरी आत्मकथा भी हैं, मेरी जीवनी, मेरा जीवनवृत्त भी । ....... ये मेरे असली पहचान पत्र हैं - real identity card, मेरा सब-कुछ ये निबंध ही हैं यानी मैं ही सब निबंध हूँ और सब निबंध मैं ही हूँ I am the essays and the essays are I. यानी रवीन्द्रनाथ और ये निबंध एक दूसरे के पर्याय हैं, एक दूसरे के स्थानापन्न (substitute) हैं। दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। दोनों को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। दोनों अद्वय हैं, एक हैं, अभिन्न हैं, अविनाभावी हैं। और सृजनकार की सफलता इसमें ही है कि रचना और रचनाकार का भेद मिट जाय। रचनाकार रचना हो जाय और रचना रचनाकार ।"