Hello! Hum Kisy Bol Rahe Hain
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आज की रात साधू के आंखों की नींद उड़ी हुई थी, विचारों की आवा-जाही बेरोकटोक चल रही थी, आज सुबह जिस घर का दरवाजा वह ठीक करने गया था, उसकी गृह स्वामिनी ने पूछ लिया था... "बहुत अच्छा काम करते हो, कारीगर, कहाँ रहते हो?" उसके बताने पर कि मैं यहीं नज़दीक ही रहता हूँ, लाजो के घर मे, तब वह महिला जोर से हँसकर बोली थी। "अच्छा है, वेश्या के कोठे में रहते हो।" तब वह नाराज होकर बोला था... "कोठा नहीं, घर है, उसका। और घर की मालकिन का नाम लाजवंती है। वह वेश्या नही है। सब्जी बेचती है।" "मुझे क्या? लो पकड़ो, अपना मेहनताना।" वह पचास का मुड़ा-तुड़ा नोट पकड़ाकर भीतर चली गई थी। आंखे बन्दकर ज़बरदस्ती सोने की हर कोशिश साधूलाल की नाकामयाब रही। जाने कैसी-कैसी सोच के दलदल में आज साधू फँस गया था, जहां से निकलने का कोई रास्ता नही दिख रहा था। आज उम्र के चालीस पड़ाव के बाद उसने नारी देह को पहली बार इतनी निकटता से देखा था। कितना गहरा चुम्बकीय खिंचाव था उसके नग्न देह में, जो पांवों को एक विंदु पर स्थिर किये रहा। तभी उसे लगा कि कमरे में वह अकेला नही है। कोई और भी है, भीनी-भीनी इत्र की खुशबू उसके नथुनों में समाने लगी थी। वह फुर्ती से चारपाई से उठा और लाइट ऑन कर दिया। अरे ये क्या देख रहीं हैं? मेरी आँखें--कमरे में मुस्कुराती हुई लाजो खड़ी थी। "तुम?" उसने आश्चर्य से पूछा। "हाँ मैं....लाजवंती।" साधू बहुत कोशिश के बाद भी बोल नही सका। वह धम्म से चारपाई पर बैठ गया, चारपाई थोड़ी चरमराई फिर शांत हो गई। लाजो भी चारपाई में साधू को तन का स्पर्श देती हुई सटकर बैठ गई। चारपाई ने इस बार कोई शोर नही उठाया। "इधर को क्यों आयी?" अपने जिस्म को दूर घसीटता हुआ उसने सीधा सवाल किया। "तुमसे मतलब?" "मुझे जानना है।" दृढ़तापूर्वक साधू बोला। "कुछ जानने से पहले मेरे उस सवाल का जवाब दो, साधूलाल! जिसने मेरे आंखों की नींद हराम कर दी है।" "कौन सा सवाल?" उसने चौंकते हुये पूछा। "तुम अपनी पत्नी को देखे तो होगे न, यदि अब सामने आ जाये तो पहचान लोगे? छूकर, देखकर या आवाज सुनकर??" "देखा तो है, लेकिन इस तरह से नहीं कि बीस साल बाद भी मिलने पर उसे पहचान सकूँ, वह मुझे छोड़कर पराये मर्द के साथ भाग गई है, उसका नाम लेकर अपनी जुबान गन्दी मत करो।" साधू चारपाई से उठता हुआ बोला।